शुक्रवार

रूस्‍वाइयां.................

हिफ़ाजत से संभाल कर रखा था दिल कमबख्त पल भर में तोड़ कर चले गए
मेरे जिगर की वि·रासत के टुकड़े महबूब की गलियों में बिखर गए

वो शायद चौदहवीं की रात थी और मौसमे बरसात थी
सनम चले जा रहे थे अकेले ही नामालुम क्या बात थी
पछियों की ना जाने कैसी चहचाहट हुई जमीं पर से इक चमक उनके पेहरे पे आ गिरी
उनके हुस्ने-फ़सूंसाज की झलक थी हर खिश्त पे जिस शय से उनकी नज़रें जा मिली
पहले जु़ल्फ़ों को संवारा बडे अदब से फिर शीशा समझ वो टुकड़े उठा लिए
अपनी सूरत को परखा हर खिश्त फिर यकज़ा कर वो सुर्ख टुकड़े बगल में झुपा लिए
मुकाम पे पहुचं कर सनम को फिर उन सुर्ख टुकडों का ख्याल आया
बुलन्द रोशनी में दस दफ़ा मेरे दिल की शहजादी ने उन शीशों का दीदार पाया
छुप ना सका ना सका वो राज अब जिसे कभी हमने बड़े जतन से छुपाया था
शीशे नहीं मेरे दिल के टुकड़े थे वो 'जालिम' जिनको सनम ने रस्ते से उठाया था

3 टिप्‍पणियां:

  1. इसे गज़ल न कह कर कविता ही कहें। आप भाव पक्ष के धनी है, शिल्प पर मेहन करें। आपको शुभकामनायें..

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  2. Thanks for sharing this articles, i hope you post more articles in your future. Post more articles for help us . read more Attitude Status

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