शुक्रवार

इन्कारे-इजहार

वे तॊ रूख्सत हॊ गए मेरी मॊहब्बत कॊ इन्कार कहके।
बेरूखी यह जान के मेरी आखॊ अश्क भी ना बह सके॥

पर यह ना समझ लीजिएगा कि हम उनसे खफा हैं।
इश्क तॊ हमने किया है उनकी कहां कॊई खता है॥

लेकिन इस कम्बख्त दिल कॊ समझाउँ अब मैं कैसै।
उनकी नजरॊं ने फिर मुड के देखा सुकूं पाउं अब मैं कैसे॥

ग़र बेबफा हॊते सनम तॊ भी किसी तरह जी ही लेते।
दिन गुजर जाते रूस्वाई में रातॊं में गजलें सुन के रॊ भी लेते॥

पर अब किससे गिला करें उनका दिल तॊ कुछ समझ ही ना पाया।
'जालिम' किस्मत में ही नहीं है शायद उनकी जुल्फॊं का साया॥

3 टिप्‍पणियां:

  1. जालिम जी, आप की गजल पढ कर लगता है बहुत चोट खाए बैठे हो । अच्छा लिखा है। बधाई।

    पर अब किससे गिला करें उनका दिल तॊ कुछ समझ ही ना पाया।
    'जालिम' किस्मत में ही नहीं है शायद उनकी जुल्फॊं का साया॥

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  2. sunil ji apke andar vicharon ka jwalamukhi dhadhak raha hai. bahut badhai kyunki yahi vichar kisi din kranti ka lawa bhi chodenge
    pratiksh

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  3. dhanayawad.
    mere lekhan ke liye ye ab tak ka best comment tha.

    tum is se bhi accha likh sakte ho,kosish karo.

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